तरकुलहा देवी मंदिर गोरखपुर से 20 किलोमीटर के दूरी प स्थित हिन्दून के प्रमुख धार्मिक स्थल ह। मान्यता ह कि इ इलाका पहिले जंगल रहल अउर इहां से एगो गुर्रा नदी गुजरत रहल। इ जंगल में डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह रहत रहलन। नदी के तट पे ताड़ के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित करके उ आपन इष्ट देवी तरकुलहा देवी के उपासना करत रहलन।
गुलामी क दिनन में जब हर भारतीय क खून अंग्रेजन के जुल्म के कहानी सुनके खौल उठत रहल, ओही समय में बड़ होखत बंधू सिंह के दिल में भी अंग्रेजन के खिलाफ आग जले लागल रहल। बंधू सिंह गुरिल्ला लड़ाई में माहिर रहलें। एही से जब भी कवनो अंग्रेज ओह जंगल से गुजरत रहल त बंधू सिंह ओकरा के मार के ओकर सर काटके देवी मां के चरणों में समर्पित कर देवत रहलन।
पहिले त अंग्रेज समझले कि उनकर सिपाही जंगल में लापता हो जाता। बाकी धीरे-धीरे उनका पता लागल कि अंग्रेज सिपाही बंधू सिंह के शिकार हो रहल बारन। अंग्रेज उनकर तलाश में जंगल के कोना-कोना छान मरलें बाकी बंधू सिंह उनकर हाथ ना लगलें। लेकिन इलाके के एगो व्यवसायी के मुखबिरी के चलते बंधू सिंह अंग्रेज के हाथे लाग गइलन।
अंग्रेज उनका के गिरफ्तार करके फांसी के सजा सुनवलस। 12 अगस्त 1857 के गोरखपुर में अली नगर चौराहा प सार्वजनिक रूप से उनका के फांसी पर लटकावल गइल। अंग्रेज उनका के 6 बार फांसी पर चढ़ावे के कोशिश कइलस लेकिन सफल ना भइलन। तब एकरा बाद बंधू सिंह खुद ही देवी मां के ध्यान कइके आग्रह कइलन की माँ उनका के अब जाए दा। कहल जाला कि बंधू सिंह के प्रार्थना मां स्वीकार कइली अउर सातवां बार अंग्रेज उनका के फांसी पर चढ़ावे में सफल हो गइलें। अमर शहीद बंधू सिंह के सम्मानित करे खातीर इहां एगो स्मारक भी बनल बा।
देश क इ इकलौता मंदिर बा जहवां प्रसाद के रूप में मटन दिहल जाला। बंधू सिंह अंग्रेज के सिर चढ़ावे के जवन बलि परम्परा शुरू कइले रहलन उ आज भी इहां चालू बा। अब इहां बकरा के बली चढ़ावल जाला आ ओकरे मांस के मिट्टी के बरतन में पका के प्रसाद के रूप में बाटल जाला।